घूमने का नाम है जिंदगी और जिंदगी जीने का नाम है खाना! इसी चिल्ल के चलते मनाली ट्रिप पर दावते इश्क़ चल रहा था एंड वी वर हाई ऑन फ़ूड.
वशिष्ठ हम पहली दफे गए थे. यहां आसपास का नज़ारा कैसा है, एक्स्प्लोर करने को क्या क्या है, हमको कुछ नहीं पता था. कल शाम जब जगतसुख से यहां पहुंचे थे तो वशिष्ठ मार्किट भी बंद हो चुका था. रात के अंधेरे में किसी तरह हमने अपने नए होमस्टे तक की चढ़ाई पूरी की. नज़ारा तो घंटा दिखना था. रात में या तो आसमान में टिमटिमाते तारे थे, या फिर मनाली के टिमटिमाते बल्ब। हमको बॉलकनी में बैठने का स्वाद आया तो वहीं सो गए. सुबह सनराइज कैसा दिखता है यहां से, यह भी तो देखना था. वैसे आपको बता दें कि यह वही जादुई बॉलकनी थी जिसका जिक्र हम अपने ब्लॉग्स में पहले भी कर चुके हैं.
सुबह सूरज की पहली रौशनी के साथ आँख खुली तो नज़ारा देख हमारे होश उड़ गए. क्या हवा, क्या बादल, क्या रौशनी और पहाड़ों के साथ क्या बबाल नज़ारा था. आप खुद ही देख लीजिए।
भाई साब, जिस हिसाब से हमारी यह ट्रिप निकल रही थी, हमको घंटा कुछ नहीं पता लग रहा था कि हो क्या रहा है, हम कहाँ से कहाँ जा रहे हैं. ऊपर से इस मॉर्निंग व्यू ने हमको और फ़िरा दिया। रात अंधेरे में जो मनाली नहीं दिखा था वो अब दिख रहा था. बाएं तरफ नीचे मनाली-ओल्ड मनाली, सामने फ्रेंडशिप पीक वाली चोटियां, और हमारे दाहिनें तरफ माइटी रोहतांग, क्या सुभानअल्लाह दृश्य था. घंटों हम वहीं स्थिर बैठे रहे. इस जगह से, खासकर इस बॉलकनी से इश्क़ में पड़ जाने में कुछ ही वक़्त लगा होगा हमको। पता भी नहीं लगा और बस हो गया. इस जगह की तो हम बेशक शर्त लगा सकते हैं कि आप यहां बैठे तो उठ नहीं पाएंगे। एक और नज़ारा देखो बालकनी से.
ऐसा लग रहा था कि पहाड़ों में हमारी ट्रिप अब शुरू हुई है. हम फुल चिल्ल मूड में आ गए थे. इस चिल में अब और चार चांद लगाने की बारी थी. वो क्या है कि चिल की डेफिनेशन बिना बढ़िया खाने के अधूरी ही रहती है. सूरज ऊपर उठते-उठते पेट में चूहे भी कूदने लगे थे. इसका इलाज़ अभी तो यही था; हमने अपना झोला उठाया और नीचे वशिष्ठ मार्किट में पहुंच गए. घर से नीचे मार्किट तक उतरने में तो बस १० एक मिनट लगते हैं। पहले हमने चाय की बढ़िया सी दुकान देखी, और चाय-समोसे पेले। अब बैठे बैठे हमने सोचा कि अगर सही में चिल्ल करना है तो खाने का प्रॉपर इंतज़ाम करना होगा. बस इतना सोचना था और बैठे-बैठे 5-6 बन्दों के हफ्ते भर के खाने की राशन की लिस्ट तैयार होने लगी.
जादुई नज़ारों वाली बॉलकनी मिल गई, हफ्ता बिताने के लिए ठिकाना मिल गया, खाने के इंतज़ाम की तैयारी चल ही रही थी. इन सब के बीच अभी ट्रैकिंग की कोई खबर नहीं थी. अय्याशी का मूड बन चुका था, अय्याशी भी कैसी, खाना बनाने और खाने की. राशन की लिस्ट में वो सब सामान जोड़ रखा था जो कि हर घर-परिवार महीने के शुरआत में खरीदता ही खरीदता है. आटा, चावल, चीनी, दाल, दूध, दही, से लेकर लहसन, अदरक, इलाइची, नमक मिर्च -मसाले, और बारिश आने पर पकौडे तलने के लिए बेसन तक हमने सब पैक करा लिया। अब दावते-इश्क़ की बारी थी.
खाने का शौक रखना एक अच्छी बात है, आख़िरकार हम खाने के लिए ही तो काम करते हैं, कमाते हैं. अपन लोग को भी खाने का तगड़ा चस्का है, आप लोग अभी तक समझ ही गए होंगे। वैसे इस दावते-इश्क़ का ट्रिप शुरू होने से पहले तो कोई प्लान नहीं था. हम तो अच्छे-खासे ग्रेट लेक्स ऑफ़ कश्मीर ट्रेक के लिए जा रहे थे. एकदम सब उलट-पलट हुआ और अब हम मनाली के वशिष्ठ में खाना बना रहे थे, खा रहे थे और फुल चिल्ल कर रहे थे. इसकी शुरआत वैसे Lagom स्टे से हो गई थी, खाने का पूरा मामला, उस रात बातों बातों में वहीं से ट्रिगर हुआ.
खाना लेकर हम अपने अड्डे पर पहुँच गए. पर जो 15 अगस्त की ट्रिप अभी तक वैसी रही ही नहीं, जैसी होनी चाहिए थी,वो आगे कैसी हुई होगी। अगला भाग, अगले शुक्रवार। पढ़ते रहिये।