पहाड़ इज़ माई सेकेंड होम; पहला… तो हम ख़ुद हैं!

हाँ तो वंडरलस्टों और फ़्री सोल लोग, आपने सुना ही होगा और पौने दो सौ बार “माउंटेंस आर कॉलिंग” का मन्त्र जाप किया होगा। मेरे को कभी ऐसे वाली फ़ीलिंग नहीं आई। हाँ, इत्तेफ़ाकन ख़ुद को पहाड़ों में पाया जब भी जीवन यात्रा ने मज़ेदार खूँख़ार रुख़ लिया, कभी जाने कभी अनजाने। पहाड़ों से अपना जन्मों पुराना रिश्ता है, इसलिए कभी बौराए नहीं वहाँ जा कर, बस एहसास होता कि घर आ गए। पर इस बार मामला कुछ अलग था, और सीन शानदार रहा, जिसके क़िस्से अब आपको सुनने को मिलेंगे। तो शुरू करें ?

मार्च आखिर में अपन वृन्दावन-मथुरा में थे, पुराना हिसाब पूरा करने (जिसकी कहानी बाद में बताएँगे)। उसी दौरान अपने भीतर की एक नाज़ुक डोर टूट गई। तबियत ऐसी बिगड़ी जैसे प्राण न भीतर रहे न ही बाहर निकल रहे। ओहो मतलब, काश ऐसे होने को लिखा जा सकता तो बड़ा मज़ा आता। तो हुआ ये कि कुछ दिन प्रतीक्षा करने के बाद अपुन के पेट का दर्द गहराने लगा और लाइफ़ में पहली बार माउंटेन्स वाला मन्त्र भीतर से हिलोरे मारने लगा। एक्चुअली में वो ख़ुद को किसी न किसी तरह बचा लेने की पुकार थी। “रोना चाहें रो ना पाएँ” गाना गाते हुए इंतज़ार किया कि कोई तो कुछ करो, कहो, एट सेट्रा, जबकि मैं ख़ुद अकेले और मौन रहने वाले स्ट्रिक्ट ज़ोन में थी। हमारे उन्ही सेलिब्रिटी दोस्त ने फिर से कुछ (नहीं) किया, तो अपन ने हिमाचल के एक मित्र को हिदायत के लिए कॉल किया। (कॉल नहीं मेसेज, बिकॉज़ मौन व्रत)। लड़के ने आव सुना न ताव, “नारकंडा आ जाओ” का आदेश दे दिया। अब डूबते को तिनके का सहारा मिलते ही, तुरंत से पहले अगले दिन की बस पकड़ कर शिमला कूच किया। अच्छा एक बात और, इस बार पैसा एकदम ठन ठन गोपाल टाइप था, तो सोलो बाइक राइड की हिम्मत नहीं बनी, और ऐक्टिवा को “नेक्स्ट टाइम पक्का बेबी” बोल कर रोडवेज़ में हाजिरी लगाई। शुभचिंतक लोग ने चिंता व्यक्त की (एज़ यूज़ुअल) “तबियत इतनी ख़राब है, पहाड़ों में ऑक्सीजन कम होती, साँस की दिक्कत है, ट्रेक कैसे करेगी” टाइप बेड़ियों से बाँधने की कोशिश, पर अपन को हलक (दिल, आत्मा, वगैरह) में लगा काँटा निकालने की ज़्यादा इमरजेंसी थी। “पहाड़ों में कदम रखते ही मैंने ठीक हो जाना है” बोल कर अपन ने बैकपैक उठाया और विधान सभा मेट्रो से (जोश जोश में) पैदल मजनू का टीला पहुँच कर, पेट्रोल पम्प पर बस का इंतज़ार किया। उफ़ इतना इंतज़ार है ना इस कहानी में ! बाई दी वे, सबसे पहला फ़ोटू चाँद का ही था, जो कि गुरूद्वारे के ऊपर मस्त चमक रहा था।

बस में एडजस्ट हो कर गाने चालू किए, और जल्द ही हम लोनी वाली साइड से नया वाला हाइवे (EPR) पकड़ कर सिंघू बॉर्डर पहुँच गए।पिछले महीने हेल रेस वाले बड़का ने किसान अल्ट्रा करवाया था, जिसमें रनर को किसान आंदोलन के तीन मुख्य बिन्दुओं को कवर करना था। हम क्रू कर रहे थे, और इसलिए सिंघू बॉर्डर पे बिताए समय की यादें ताज़ा हो गईं। मन किया कि यहीं उतर कर दोस्तों से मिला जाए, जिनमें मुख्य थे एक दार जी जिन्होंने सिख हिस्ट्री के कुछ लेसंस हमारे साथ शेयर किए थे और मेरे को फ़ुल मोटीवेट किया पढ़ने के लिए (पर मैं हूँ बेशरम)। अब पता नहीं आंदोलन और उसके तरीकों, स्टेट के नज़रिये और रवैय्ये के बारे में बहुत डिबेट चलती रही हैं, बट अपने को आंदोलनकारी किसान जनता से भरपूर प्रेम, अपनापन मिला, और ये भी दिखा कि मीडिया की फ़ेक न्यूज़ ने कितना सतर्क कर दिया है लोगों को कि कोई बाहर का “बैड फ़ेथ” में कोई काम तो नहीं कर रहा। कई सालों बाद गिलास भर दूध और खीर एक साथ खिला दिए गए थे, जबरदस्ती (अब इतने प्रेम को अपुन मना नहीं कर पाते हैं)। उफ़्फ़, फ़ुल नॉस्टाल्जिआ ! # अपने हक़ का कोई भी आंदोलन आसान नहीं होता।

बैक टू NH 1 जर्नी। अब बारी आती है कुछ पेट पूजा की। हमारी बस रुकी कुरुक्षेत्र में “साहेब” नामक स्थान पर। यहाँ पर खाने के दाम देख कर अपना वंडरलस्ट वंडर और वांडर दोनों करने लगा। “इतनी भी भूख नहीं लगी है” ख़ुद को बोल कर, अपुन ने कुछ खाया नहीं। हाँ, फूल और लाइट्स की जुगलबंदी से पेट ज़रूर भरा। और चाँद को निहारते निहारते टाइम ऐसे निकल जाता है कि क्या बताएँ, खाने की किसे फ़िक्र है। नन्हे नन्हे फूल और “साहेब” वालों ने जो मस्त लाइट लगा रखी थीं ज़मीन में, कि भाईसाब नशे से हो गए। ऊपर से मंद मंद हवा का बह कर फूलों को हिलाना। ओहो, नाओ जस्ट इमैजिन !

बस जब चलने लगी तो जब तक शिमला नहीं पहुँच गए, थोड़ा आगे बैठीं आंटी का सारा खाना आंदोलन करता रहा। आंटी की उल्टियों का मैराथन वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल होने क़ाबिल था। मेरी तरफ से पाँच लाइक्स। पर इसी बीच पहाड़ में एंट्री हो चुकी ही थी, तो अपना सीन अलग ही था।

“पहली नज़र में ऐसा जादू कर दिया” होने के बाद शिमला तक मदहोशी ही रही। नहीं, अपुन को नींद नहीं आती ऐसे बखत। होश तो तब उड़ गए जब शिमला उतर कर नए बस अड्डे जाने के लिए “300 रूपए लगेंगे” बोला भाईजी ने। मेरे हार्ट अटैक को भाँपते हुए उन्होंने पैदल का रास्ता बताया और अपुन सीधे सीधे रास्ता एन्जॉय करते हुए निकल लिए। “इतना सामान लेके काये कू आना था तेरे को?” मगर हम भी फ़्री सोल ठहरे, टैक्सी और पैदल की जंग में, ऑफ़ कोर्स हम पाओं को ही प्रेफरेंस देते हैं, क्यूंकि? नज़ारों के मज़े ब्रो ! और फिर सामान के बोझ वाला दुःख तुरंत विलुप्त हो गया शिमला से नारकण्डा वाले नज़ारों में। और सोने पे सुहागा रहा नवीन का जगमग चेहरा ! उफ़्फ़ इतने प्यारे लोग मिलते हैं जीवन में, और क्या ही चाहिए, क्यों?

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