हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल से करीमगंज की ड्राइव का खिड़की काण्ड!
“जब आप घूमने के लिए कहीं जाते हैं, तो बेशक एक मोमेंट के लिए ही सही, घर की याद आई है?”
नॉर्थ ईस्ट की कहानी में आगे बढ़ने से पहले आप हमें ये बताइए। वैसे ट्रैवल करते समय ऐसा फ़ील करने की बेहिसाब वजहें हो सकती हैं। कभी, कहीं आपकी जर्नी इतनी लंबी हो जाएगी कि बस से उतरकर रास्ते पर ही बैठ जाओ; कभी पहाड़ों में विचरते विचरते मौसम की ऐसी मार लग सकती है कि नानी का घर तक याद आ जाए। एक फ़ैक्टर ये भी सटीक बैठता है कि ट्रैवल आपको आपके कॉम्फ़ र्ट ज़ोन से बाहर धकेलती है। आप किस तरफ़ आगे बढ़ते हो, वो आप पर है। इसी डिस्कंफ़र्ट की मोमेंट में आप अपना ‘पैलेस ऑफ़ जेन एंड पीस’ खोजते हो। हमारी मानें तो ये भी ट्रैवल की एक फ़ुल्फ़िलिंग-सी फ़ीलिंग होती है और ऐसी ट्रिप्स पर ये वारदात होते होते, हो ही जाते हैं।
पर इस ट्रिप पर हम पिछले पांच दिनों में इतना घूम लिए थे कि थकान अब दिमाग के अंदर वाले कोने की सेल में घुस चुकी थी। हमने भारत का वो हिस्सा जिसे किताबों में ‘सेवन सिस्टर स्टेट्स ऑफ इंडिया’ कहते हैं, इतने करीब से देखा और जीया कि दिमाग सब कुछ प्रॉसेस करने के लिए ब्रेक की मांग करने लगा था। हुआ कुछ यूं कि हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल में कॉन्सर्ट देखते देखते कब रात के ग्यारह बज गए, हमें पता ही नहीं चला। हॉर्नबिल में माहौल होता ही इतना मदमस्त है। अपने रुकने का प्रबंध तो एंट्री गेट के सामने वाली टपरी के पीछे था — विद क्रेज़ी वैली व्यू। म्यूज़िक कॉन्सर्ट ख़त्म होते होते हम लोग बाहर आ गए।
क्रेज़ी वैली व्यू वाली प्रबंध का किस्सा जानें।
हार्नबिल फेस्टिवल देखने और घूमने के लिए बेसिक जानकारी यहाँ है!
हम टपरी वाले भाई को खाने के लिए पहले ही बोल गए थे। जाते ही अपने को खाना रेडी मिला। खाना पीना पेल कर हम सोने की तैयारी करके, सुस्ताते बातें कर रहे थे कि एक बावरा बोल पड़ा — “ओए घर चलें क्या? करीमगंज?” नॉर्थईस्ट की विल्डरनेस से ओत प्रोत, हम पिछले पांच दिन से गाड़ी में ही पड़े थे। घर का नाम सुनते ही सबकी नींद सरकार की उस फ़ाइल की तरह ग़ायब हुई जिस पर सरकार के दुश्मन मीडिया चैनल्स की भी नज़र नहीं पड़ती। सब एकदम से होश में आ गए। सारा दारोमदार हमारे दोनों ड्राइवर्स, चेटा और प्रत्युष दा पर था। ये दोनों ही बेगूसराय से गुवाहाटी उस गाड़ी को लेकर आए थे जो अगले 10 दिनों तक हमारा चलता फ़िरता घर बन गई। नींद और रेस्ट की सबसे ज्यादा ज़रूरत इन दोनों की ही थी। पर घर जाने की बात सुनकर दोनों को मानो वही ग़ायब सरकारी फ़ाइल मिल गई। दोनों दुश्मन मीडिया चैनल के सूत्र बनने को तैयार होते दिखे। फ़टाक से सारी रात गाड़ी चलाने के लिए दोनों तैयार और सीन बन गया! सोने के लिए लगाए हुए टेंट हमने लपेट के गाड़ी में रखे और रात को ही हॉर्नबिल से फिर असम के लिए निकल लिए।
असम में क्या? असम में हम बंजारों में से एक बावरे का घर है, करीमगंज में। मेघालय के नीचे वाले असम के हिस्से में, बांग्लादेश बॉर्डर से सटा हुआ एक छोटा सा टाउन है करीमगंज। असम की नैचुरल और कल्चरल ब्यूटी का एक हिस्सा इसके खाते में भी आता है। पर अपने को तो इन सब चीज़ों से बढ़कर घर जाने की ज्यादा परी थी। घर का कॉम्फ़र्ट तो आपको वहीं मिल सकता है न जहां माँ होती है। यही सब सोचकर हम सबका मन तुरंत घर जाने का बन गया था। करीमगंज पहुँचने में और तो कोई मशक्कत नहीं हुई, बस यही था कि रास्ता दर्दनाक लंबा था।
गूगल मैप के अनुसार किसमे हेरिटेज विल्लेज से घर पहुँचने में हमको क़रीब दस घंटे लगने थे। सो हम अपनी पेटियां कस के सफ़र पर निकले थे। उस रात का तो हमको पता नहीं, पर हमारी अगली सुबह अलौकिक हुई। सन देवता ने जंगल पर पसरे बादलों पर से ऐसी रौशनी बिछाई कि बस पूछो मत! आप इमैजिन करिए — आप एकदम नई बानी काली चटक सड़क के एक किनारे से दूसरे किनारे चल कर जाते हो और आपको एक तमाशा दिखता है — सफ़ेद फ़ाहों के घुमड़ते तरंगों का एक अनंत दिखता है! आपको ये नहीं भूलना है कि जिस किनारे से आप चल कर आये हो, उधर सब केसरिया था! सुपारी के जंगलों में पेड़ों की नोक पर संतरी बदल फ़ंसे हुए थे!
है न अलौकिक?
रात बारह बजे से, अब अगले दिन दोपहर के बारह बज चुके थे। हम लुमडिंग से सिलचर वाले रस्ते पर चले ही जा रहे थे. Google जितने टाइम में घर पहुँचने की कह रहा था, उतने में तो हम अभी तक सिल्चर भी नहीं पहुंच पाए थे। घर पहुँचने की आस में, सुबह का नाश्ता दोपहर में खाया गया।
गाड़ी में ही पांचवे से छठा दिन बीतने लगा था। हमारी सुपरस्टार Ecco ने इस ट्रिप पर अपने तमाम रिकार्ड्स तोड़ डाले थे। ड्राइवर कम्पार्टमेंट वाली दो सीटों पर तो दोनों सारथियों ने कब्जा जमाया हुआ था। उसके पीछे वाली सीट पर तीन जने, मस्त पैर फैलाये खिड़की से नज़ारों का स्वाद लेते सफर कर रहे थे। जो सबसे मजेदार सीट थी, वो थी पीछे डिक्की में बना एक पर्सनल सुईट। सीटों के नीचे और बीच में सारे रकसैक्स, टेंट्स और खाने का सामान जमाया गया और उसके ऊपर दो तीन दरियों की लेयर्स से मस्त बेड बना के, तीन सौ साठ डिग्री नज़ारों वाला पूरा बेडरूम तैयार किया गया था। हदें हम सभी पार करते हुए आए थे, और इन हदों को पार करने में हमारी सुपरस्टार Ecco का साथ सबसे अहम था। माजुली पहुँचने के लिए हमारे साथ हमने सुपरस्टार Ecco को भी ब्रह्मपुत्र नदी पार कराई थी। चला के नहीं, फ़ेरी से। पूरी ट्रिप पर यही हमारा चलता फिरता घर थी।
हम फ़िर से गाड़ी में बैठकर चले ही थे कि गाड़ी में अचानक सब ग्रे हो गया! बात करते करते मुंह में मिटटी, सामने सब धुआं धुंआ! हमारी फ़ट के हाथ में आ ली – पूरे 7 सेकण्ड तक कुछ समझ ही नहीं आया — आठवें सेकंड में समझ आया कि धूल घुस आई है। पता चला खिड़की खुल गई! खुल नहीं गई, निकल कर गिर गई। पीछे सुइट में बैठे बन्दे की अंगड़ाई ने एक खतरनाक काण्ड कर दिया। अब हम सब की जान हलक में – खिड़की का शीशा गया, रास्ते भर धूल मिट्टी से बचेंगे कैसे और शीशा मिलेगा कहाँ? हुआ ये कि पीछे लेफ्ट साइड वाली खिड़की का शीशा, सोते बन्दे के पैर के प्रेशर से बाहर निकलकर गिर गया।
करीमगंज के रस्ते, गाड़ी में हम हमारे साथ जंगल, जंगल की आवाज़ें और रस्ते की धूल साथ लेकर चल रहे थे। ऊपर से इस खिड़की काण्ड के बाद तो अंदर इंटरस्टेलर के ओपनिंग सीन का सेट तैयार था! अपने फेफड़ों में ढाई-ढाई किलो धूल भर के हम सूरज ढलने से पहले सिलचर पहुंच पाए थे। सिलचर से हम मेन हाईवे पर चढ़ गए और बराक नदी के सहारे सहारे करीमगंज की ओर, बस चलते ही रहे। जंगल से निकलने के बाद कुछ दूर चलकर हमें लोग-बाग दिखे। रस्ते में एक दुकान पर गाड़ी का शीशा सेट करवा कर रात आठ-साढ़े आठ तक हम घर पहुंच गए।
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अब जिस रस्ते हम चल रहे थे उसकी कहानी बताते हैं।
हमें अपनी नॉर्थईस्ट ट्रिप पर बारी-बारी, सभी राज्यों से दो-दो-चार दिन रुकते हुए चलना था। नागालैंड में हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल अटेंड करके मणिपुर की राजधानी इंफाल जाने का भी सीन था। मणिपुर देखकर हम वहां से सिल्चर आते और फिर वहां से अपने घर। पर हॉर्नबिल से सीधा घर आने के सीन की वजह से, हमने मणिपुर और आगे त्रिपुरा जाने की संभावनाएं रद्द की और अपनी गाड़ी वापस दीमापुर की तरफ घुमाकर, एक अलग रास्ते से, सीधा सिलचर आने का निर्णय लिया क्योंकि पहुंचना करीमगंज था।
जिस रस्ते से हम सिल्चर आ रहे थे, वो बराक घाटी के घने जंगल से होकर गुजरता है। बारिश के मौसम में इस रास्ते से निकलना नामुमकिन होता है। हम दिसंबर में गए थे, तो रस्ता सूखा मिला। पर रस्ते की हालत एकदम ख़तम थी। गाड़ी के साथ हमारे अंजर पंजर भी आवाज़ कर रहे थे। ऊपर से रस्ते भर जितने भी गांव कस्बे पड़े, ज्यादातर जंगल की गहराइयों में गायब थे। सड़क से तो आपको दूर दूर तक पहाड़ियों पर फैले घने जंगल के सिवाय कुछ नहीं दिखेगा।
घर पहुंच कर आधे घंटे में फ़ीलिंग होम की फीलिंग से ओतप्रोत हम पिछली रात से अगली रात में आ चुके थे। लगभग चैबीस घंटे के इस सफ़र ने हमारा माथा सन्न कर दिया था। रस्ते भर नज़ारे कम नहीं दिखे! इतने दिखे कि देखते देखते हमारी आँखें थक गई। गाड़ी चलाने वाले बन्दों की तो पूछो ही मत, उनकी आँखें तो अलग चुंधियाई हुई थी।
इधर करीमगंज के श्यामनगर में घर पर दोपहर से ही खाने की तैयारियां हो रही थी। इतने तरीके की फ़िश बनी थी कि पहले तो समझ ही नहीं आया कि क्या क्या खाएं। थकान थकान में हमने खूब खाया और खाते ही जो नींद आई उसकी ख़बर हमें आज भी नहीं है! अगले एक दो दिन तो हम यहीं रहने वाले थे, इसके पूरे पूरे आसार बनते दिख रहे थे।
अगले भाग में घर वालों से और उनके करीमगंज से मिलाते हैं। तब तक आप मेघालय से करीमगंज की होमकमिंग वाली ट्रिप का हिस्सा वीडियो में देख लीजिए :