monastery in bagori village near harshil

Bagori Village – उत्तराखंड की हर्षिल घाटी में बसा एक आदर्श ग्राम

“असली भारत गाँवों में बसता है।” – महात्मा गांधी 

ध्यान से सोच कर देखें तो गांधी जी का यह कथन कई मायनों में हमको उन सवालों के जवाब दे सकता है, जिनको हम सभी समझने की आशा रखते हैं। सवाल कि आख़िर ‘भारत क्या है’, ‘ये कहां बसता है’, ‘इसकी सुध कहां रहती है?’ गांधी जी की बात का एक सीधा-सा मतलब यह निकलता है कि शहरों से तुलना न भी करें तो भारत के गांव ज़्यादा पुराने हैं, और काफ़ी पहले से बसे हुए हैं। शहर तो अब खड़े हुए हैं, अलग अलग गांव के लोगों से मिलकर ही तो बने हैं।  और घनत्व के हिसाब से बेशक हमें शहरों में ज़्यादा भीड़-भाड़ दिखती हो, पर गाँवों में रह रही कुल आबादी अभी भी शहरों से कहीं ज़्यादा है। भारत की धरती के ज़्यादातर हिस्से पर भी यही लोग बसे हैं। उसकी देखरेख करते हैं, उस पर अपने लिए, दूसरों के लिए अनाज उगाते हैं। फिर चाहे ये लोग किसी पहाड़ की चोटी पर बस्ते हों, कहीं समुन्दर किनारे हों, क़रीब के किसी बीहड़ में या कहीं बंजर रेगिस्तान के मध्य में। 

Monsson is the best time to visit Baga Sarahan
असली भारत गाँव के कच्चे रास्तों में बड़ा हुआ है

तो शहरों से गांव की संख्या ज़्यादा, वहां रह रहे लोग ज़्यादा, तो उनका योगदान भी ज़्यादा ही होगा। इसमें बात चाहे हरितक्रांति के समय की करलो या औद्योगिक क्रांति की, भारत के निर्माण में गांव व यहां के लोगों ने हमेशा से ख़ून-पसीना बहाया है। अपने ज़मीनें और जानें तक दी हैं। समय- समय पर भारत की प्रॉग्रेस के लिए अपने नक़्शे-क़दम बदले हैं। पर ये बातें लोगों के लिए अब पुरानी हो गई हैं। 

भारत के गांव और शहर अब एक ही रस्सी के दो छोर हो चुके हैं। एक ही देश का हिस्सा होते हुए भी एकदम अलग। शहर कहते हैं कि प्राग्रेस के पथ पर हम काफ़ी आगे निकल आए हैं, आप लोग हमें नज़र नहीं आते। गांव के कनेक्शन कट गया है।  गांव पीछे से पुकारते होंगे कि शायद आप लोग फ़िलहाल ये भूल गए हैं कि आपके मोर्निंग वाले मल्टीग्रेन ब्रेड का ग्रेन(अनाज) तो अभी भी इसी गांव में उगता है। हम नहीं उगायेंगे तो आप घंटा खायेंगे।

हिमाचल के इस गाँव में पांडवों का लगाया पेड़ है और यहाँ से एक मील दूर बागा सराहन है – जहाँ कौरव पांडवों का पीछा करते करते पहुँच गए थे!

Delhi Metro in Dwarka
शहरों में क्या दिखता है !

ऐसे ही सवालों, जवाबों और लोगों को सुनने की तमन्ना को मन में रखे हम घूमने निकलते हैं। इस वाक़्ये में हमारी मुलाक़ात उत्तराखंड के अनोखे गाँव – बागोरी से हुई। बावरे बंजारे ‘हर्षिल वीकेंड ट्रिप’ के दौरान अपनी टोली यहीं रुकी थी। हम गाड़ी में उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिए बैठे थे। 

bawray banjaray at harshil
पकोड़े प्याज के, गाँव भारत के

रास्ते में किसी मार्केट से खाने-पीने का सामान उठाना था। रास्ता भर गाड़ी से हम मार्केट और नज़ारे ही तलाश रहे थे। गंगोत्री से पहले हर्षिल मार्केट उतरे सामान लेने, वो रुकना हुआ और हम तो तीन दिन वहीं जम गए। हर्षिल मार्केट के पीछे एक पुल पार करके, बाग़ोरी गांव के किनारे हमने अपने टेंट पिच कर लिए। जगह ढूँढने में थोड़ा समय लगा, पर आप जगह भी तो देखिए।

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Bawray Banjaray का हर्षिल वाला कैंप

हर्षिल वैली में बसा Bagori Village हमको बहुत ही बहका देने वाली जगह लगी। एकदम अलग-थलग सी शांत जगह। उत्तरकाशी से 75 km दूर और गंगोत्री धाम से 25 km पहले पड़ती है। गांव के बराबर से जलनधारी खड बहती है जो आगे जा कर गंगा नदी में मिलती है। सारा एरिया पाइन और चीड़-मजनू के पेड़ों से टपा पड़ा है। बर्फ़ ख़ूब आती है, सेबों की ज़बरदस्त खेती होती है। पास में हर्षिल कैंट ऐरिया है और उस से सटी हुई वो छोटी सी मार्केट जो मेन रोड से जुड़ती है।

harshil bridge
पुल से परे एक सुन्दर गाँव है

गढ़वाल हिमालय की गोद में बसा ग्राम पंचायत बाग़ोरी एक ‘आदर्श ग्राम’ है। मतलब साफ़-सुथरा और रहने के लिए सभी ज़रूरी सुविधाओं के साथ – साफ़-सुथरे पब्लिक टॉलेट्स भी हैं यहां।

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गंगा दर्शन भी करते जाइएगा

छोटा सा गाँव है। नए-पुराने सब मिला कर कुछ 130-150 घर होंगे। कुल आबादी भी लगभग 500 के क़रीब होगी। लोग सीधे-सादे और मेहनती हैं। खेती के अलावा यहां बुनाई का काम बहुत होता है – दिन के ख़ाली समय में आदमी हो या औरतें आपको सभी सूत कातते दिख जाएँगे।

women of bagori
हमारा वाला फेमिनिज्म

इनमे से ज़्यादातर लोग तिब्बत की भूटिया जाति से सम्बंध रखते है। इसमें हिंदू और बोध दोनो आ जाते हैं। गांव की एंट्री पर अगर आपको एक तरफ़ माता का मंदिर और लहराते लाल झंडे दिखेंगे तो दूसरी तरफ़ बौध मोनेस्ट्री के आसपास सतरंगी झंडों की क़तारें। दिल ख़ुश हो जाएगा ऐसी एंट्री देख कर।

temple in bagori
क्या मंदिर क्या मोनेस्ट्री

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फिर लोग भी इतने ख़ुश मिज़ाज हैं कि हर कोई मुस्कुराकर आपका अभिवादन करेगा। इनकी इस ख़ुशी का शायद इनके छोटे-छोटे पुराने घरों में बसता हो। सभी घर लकड़ी और पत्थर से बने हैं। घर के नीचे या या घर के बराबर में, अपने जानवरों को ये अपने साथ रखते हैं। उनकी भी ख़ूब सेवा की जाती है, तभी तो खाने का प्रबंध बना रहता है। मॉडर्न मकान गांव में तो कोई मुश्किल ही दिखेगा।

balcony in harshil
भुटियों वाली बालकनी

बागोरी के लोग भूटिया भाषा बोलते है जो कि तिब्बती और नेलांग घाटी की बोली का मिक्स है। यहाँ के लोगों को 62 की इंडो चाइना वॉर के बाद नेलांग घाटी से लाकर बगोरी में बसाया गया है। एक समय पर नेलांग घाटी तिब्बत भारत के बीच होने वाले कारोबार के रास्ते पर एक मुख्य पड़ाव था। यह लोग साल्ट रूट के कारोबारियों को मंडी में जरूरी चीज़ें बेच कर अपनी जीविका चलाते थे। समय और हालातों के साथ इन लोगों ने बागोरी में आजीविका के लिए ऊन की बुनाई शुरू कर दी। इस तरह, साल्ट रूट के ये व्यापारी, वीवर्ज़ ओफ़ बाग़ोरी बन गए। 

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sheep shredding in Harshil
भेडू पाको बारा माशा

सन 62 की लड़ाई के बाद नेलांग को पूरी तरह से बंद कर दिया गया और हर्षिल आने के लिए विदेशी लोगों को इनर लाइन परमिट लगता था। पर सन 2016 में इसे बदल दिया गया अब भारतवासियों के साथ साथ विदेशी भी हर्षिल और बागोरी के नज़ारे कर सकते थे। नेलांग घाटी को भी पर्यटन के लिए खोल दिया गया है।

a home in bagori
जब परमिट हटा तो गाँव की शक्ल बदल गयी

इंडिया बेशक शहरों में बस रहा हो, भारत तो अब भी गांव में बसता है। प्रैक्टिक्ली, एकनॉमिक्ली या कैसे भी हम देख लें, यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि देश की प्रगति में भारत के गाँव बहुत ज़रूरी हैं। उतने ही ज़रूरी हैं वहां के लोग और उनकी ज़रूरतें। गांव की वजह से ही शहर चल रहे हैं, अगर गांव ही टूट जायेंगे तो सारे शहर भी ठप हो जायेंगे। सोचिए, कितनी ज़रूरी बात है समझने की।

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