अनंत की पुकार | क़िस्सा नंबर 2: सवा घंटे वाला चाय ब्रेक

पढ़ें क़िस्सा नंबर 1: सोलो बोल्ड है

म्यूज़िक फ़ुल ऑन बज रहा है, और रास्ता अक्षरधाम मंदिर से ग़ाज़ीपुर की ओर बढ़ रहा है। कुछ दिन पहले किसान आंदोलन के स्थान पर थे तो याद रहा कि रोड ब्लॉक होगा। खोपचे वाली सड़क के घुमावदार रास्ते पार कर के फिर से हाइवे पकड़ लिया गया। कुछ ही देर में ईस्टर्न पेरीफ़ेरल एक्सप्रेसवे (ई.पी.ई) ने स्वागत किया हमारी नन्ही ऐक्टिवा का। यहाँ एक बात साफ़ कर देनी ज़रूरी है: अगर ख़तरों के खिलाड़ी होने का ख़िताब चाहिए तो दिल्ली की सड़कों पर, मद्धम लाइट में, छोटा दुपहिया वाहन चलाएँ। ये एहसास प्रिय दिल्ली हर रोज़ तो नहीं, एवरीडे ज़रूर करा देती है कि बच्चू अभी भी डर से निजात नहीं पाए हो। एक गड्ढा या मिनी चारकोल पहाड़ आते ही मेरे को धक् धक् होने लगता है। ई.पी.ई के बाद का रास्ता, 95 % शानदार है, कम रौशनी में भी आराम से चल गया अपुन का। पर एक बात समझ आई कि रास्ता चाहे जैसा हो, नज़र बहुत दूर न ले जाई जाए तो मामला सेट है। इन शॉर्ट, सतर्क रहो।

ऐनीवे, मेरठ जल्द ही आ गया और अपुन के हाथों को ठण्ड लगना शुरू हुई। बोले “देवी हमें निर्वस्त्र क्यों ले आईं, और चाय के लिए भी न रूकती हो। कुछ तो शर्म करो”। अच्छा अभी अपुन “अपर गंगा कैनाल रोड” पर है, जो कि बहुत चौड़ी सड़क नहीं है पर लोग अच्छा ड्राइव कर रहे हैं। एक दो ऐडवेंचरर्स ने ऐसे ओवरटेक लिए कि हँसी भी आई और धक् धक् तो है ही। यहाँ ठण्ड ज़्यादा लगती है, क्यूँकि बाजू में ही नहर बह रही है। तो खतौली से थोड़ा पहले एक मस्त चाय की दुकान देख कर अपुन ने ऐक्टिवा पार्क कर दी। यहाँ के करता धर्ता हैं राज सैनी। ये गांव “भोला” है, मेरठ में ही पड़ता है। राज भाईसाब ने अदरक वाली कड़क चाय तो पिलाई ही, अपुन को ऐसी बातें बताईं कि हम फ़ैन हो गए। सबसे पहले तो उन्होंने दाद दी कि लड़की अकेले ही स्कूटी पर ऋषिकेश जा रही, और फिर चिंता ज़ाहिर की, जैसा कि अक्सर घरवाले करते हैं, आदतवश। उन्होंने लड़का-लड़की लोग के कुछ क़िस्से बताए जो मज़ेदार तो थे ही, बचकाना थे (उनकी ज़ुबान में टोटल नॉनसेंस)। जैसे- एक लड़की भरी सर्दी में चप्पल में ही अपने बॉयफ़्रेंड के साथ बाइक पर आ गई और फिर राज भैया से पूछा “हरिद्वार और कितनी दूर है?”, “अभी तो दीदी शुरू ही किए हो आप”, जिस पर उसने क्यूटी पाई को कहा “अब दिल्ली दूर नहीं”। 

इसी सब कॉमेडी के बीच ट्रक ड्राइवर मोहन जी (नाम काल्पनिक, बंदा रियल) भी आ गए और हमने चाय का सेकेण्ड राउंड शुरू किया। मोहन जी और राज भैया दोनों की बात और जीवन अनुभव का निष्कर्ष: ज़्यादा पढ़ाई कर के किसी का भला न होता। काम चलाऊ पढ़ो, नौकरी तो वैसे भी न हैं। अपना काम करो, आत्मनिर्भर बनो। काम वो सीखो जो रोटी कपड़ा मकान दे पाए, और लाइफ़ में चाहिए ही क्या। गणित में “अ ब ज” हमारे तो काम न आया। अच्छा यहाँ तक दोनों कन्फूजिया गए थे अपुन की उमर और पी एच डी के बीच में।

भोला गाँव की भोली सुबह

कन्फ़्यूज़्ड मोहन जी राम राम कर के निकल लिए और राज भैया ने एक लम्बा निबंध लिख दिया संक्षिप्त में, “भारत साधू संतों का देश है”। इसके शीर्षक पर जाओगे तो बड़ा पछताओगे। निबंध के मुख्य बिंदु ये रहे:

1) हर कोई रमेश, सुरेश, और थॉम्पसन (ऐरा गैरा नत्थू खैरा / Tom Dick and Harry) साधू बना फिरता है।

2) मजबूर जनता अपने भय, लोभ, और भेड़ चाल के कारण साधुओं के पास जाती है।

3) बाबा के आशीर्वाद से नहीं, बीमारी दवा से जाती है, और अपने समय से बच्चे होते हैं।

4) बिरले ही ठीक योगी होते हैं, बाकी सब पॉलिटिक्स, स्वार्थ, ढोंग, लोभ है।

5) स्त्री को बेवकूफ बनाना सबसे आसान होता है, क्यूँकि उसका स्वभाव कुछ ऐसा है, और समाज का बोझ उसे इन चक्करों का सहारा लेने पर मजबूर करता।

इस निबंध को भारी बहुमत से ऐंटी-नेशनल का अवार्ड मिला, और “भगवान से कुछ तो डरो” बोल कर हमने अपने स्त्री-धर्म को निभाया। 

“आई अग्री” बोलते सूर्य देव

सरल जीवन जीने के धनी हैं राज भैया। वैसे उन्होंने “शादी क्यों नहीं करती?” जैसे सवाल भी किए और मैंने जीवन मार्ग की ओर बस इशारा कर हाथ जोड़े। अब तक सवा घंटा हो चुका था, और उजाला भी। “आगे बढ़ा जाए” कह कर मैं उठी, एक सेल्फ़ी ली, और अपना नक़ाब लपेटने लगी। इतने में राज भैया ने हरिद्वार तक के दोनों रास्ते कागज़ पर बना कर समझा दिए। “वापसी में मिलना” “हाँ तब और क़िस्से सुनूँगी” के बाद अपुन ने सामने का नज़ारा देखा। हल्का सा फॉग, उड़ते हुए सफ़ेद-काले बादल, उनमें से लुक्-छिप जाता चाँद, नीचे गंग नहर, उस पार भिन्न प्रकार के पेड़ अलमस्त नाचते, जैसे पूनम के चाँद को धन्यवाद करते हों और अलविदा कहते हों। सर्वत्र को प्रणाम कर के, अपुन ने ऐक्टिवा दौड़ा दी अगले स्टॉप हरिद्वार की तरफ़।

सर्वत्र का नृत्य

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