भदरवाह, एक ऐसी जगह कि आप भी कह उठेंगे, भई वाह! आगे पढ़ने से पहले, पार्ट 1 यहाँ पढ़ें!
तो डोडा टैक्सी स्टैंड से अपने साथ दो और लोग हो लिए! जम्मू से डोडा में इन्हें पिक करते हुए करीब छह घंटे के सफर के बाद हम लोग भदरवाह पहुंच गए. भदरवाह, भदरकाशी, “नागों की भमि ” — इतिहास में बेशक इस जगह का लेखा-जोखा कम मिलता हो लेकिन ये जगह काफी ज़्यादा मिथिकल और मिस्टिकल है! नागों और गरूड़ों की खींचातानी के बीच बढ़ता बदलता भदरवाह मॉडर्न टाइम्स में ट्रैडिशनल कश्मीरी टेररिज़्म से छुटकारा पाते हुए आज मिनी कश्मीर के नाम पर अपना टूरिज़्म बेचने की कोशिश कर रहा है!
असल में यहां के इतिहास की खबर तो यहां की ज्यादातर जनता को भी नहीं है, पर इन लोगों के लोक गीतों में भदरवाही इतिहास के किस्से भरे पड़े हैं. यहां के लोग मुख्य तौर पर भदरवाही बोलते हैं, और बाहरी दुनिया से संपर्क साधने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं. इनके मुख्य त्यौहार मेला पट्ट और कैलाश यात्रा हैं, जो कि हर साल मनाए जाते हैं.
इन लोगों के लोक गीतों के आधार पर इतिहास बुनें तो पता लगता है कि किसी ज़माने में इस जगह का नाम ‘हेत्तरी नगर’ हुआ करता था. दो और छोटे शहर; डोंगा नगर और उधो नगर इसके आसपास बसे हुए थे. किसी काल में दोनों नगर एक मूसलाधार बारिश में बह गए. इस आपदा के कारण इन लोगों को अपनी जान बचाने के लिए ‘सीरी’ यानी एक बहुत बड़े खुले मैदान में जाकर बसना पड़ा, जो कि आज भदरवाह टाउन है.
इस तबाही के संकेत आपको यहां पर पाए जाने वाले विशालकाय पत्थरों में दिख जाएंगे, जो कि बारिश की बाढ़ में यहां तक बह कर आए थे. इस आपदा के निशानों को आप भदरवाह के पुराने किले पर भी देख पाएंगे. ऐसे ही इनकी कहानियों में देवतओं के यहाँ आकर बस जाने की कथाएं भी है. भदरवाह घाटी में वासुकि नाग और दूसरे नाग देवतओं के मंदिर देखने को मिलते हैं, जो इन लोगों का कनेक्शन नाग सम्प्रदाय से साफ़ तौर पर सिद्ध करते हैं.
भदरवाह पहुँचना और वहां पहला दिन
अब ये तो थी भदरवाह की किताबी-जानकारी, जो कि इस जगह को जानने में आपकी सहायक हो सकती है. पर हमारी मानें, तो किसी जगह को जानने का सबसे सीधा और सफल तरीका है उस जगह पर जाकर समय बिताना, वहां पैदल घूमना और लोगों से जितना हो सके उतना इंटरैक्ट करना।
भदरवाह पहुँचने से पहले ही हमने रैना भाई को फ़ोन कर दिया था. हमारे भदरवाह पहुँचने से पहले ही वो बस स्टॉप पर अपनी मारुती ओमनी लेकर पहुँच गए थे. भाई जी ने हाल-चाल पूछा और हमें अपने घर पर रुकने के लिए कह दिया. हमनें भी सोचा कि जो स्टे के जो पैसे होटल या कहीं और देंगे वो भाई जान को ही दे देते हैं। रुकवाने के साथ रैना भाई हमें भदरवाह घुमाने के लिए भी रेडी हो गए.
रैना भाई ने हमें एक और बता बताई कि यहां के लोग बाहर के टूरिस्ट देखने के आदि नहीं हैं, यहां काफ़ी कम लोग घूमने आते हैं, तो लोकल लोग शायद आपसे कम बात करें. पर आपको अगर हम हक़ीक़त बताएं, तो में कारण यह भी हो रहा था कि हम सात लोगों के ग्रुप में दो लड़कियाँ भी साथ थी. ऐसी जगहों में या ट्रैवलिंग पर मिले ऐसे मौकों की वजह से आपके अंदर का शहरी फ़ेमिनिस्ट एकदम से व्हीलचेयर पकड़ लेता है! इस पूरी ट्रिप पर ऐसे कई मसले हुए जब हमसे सीधा सीधा ये सवाल पूछा गया – “ऐ कुड़ी क्या कर रही है? ये कहे घूम रही है?”
रैना भाई का गाँव भदरवाह टाउन से कुछ पांच-सात किलोमीटर दूर ही था. टाउन में थोड़ी तफरी मार के, चांद निकलते निकलते हम लोग भाईजी के घर, मथोला गाँव पहुँच गए. रात का खाना भाई जी ने घर पर बनवा दिया था, सो फटाफट पेल कर सब लोग फ़ैल गए!
सुबह अपना कैमरा उठाया और गांव में घूमने निकल पड़े. गांव के सभी घर, घाटी की एक साइड, थोड़ी-ऊंचाई पर बसे हुए थे. सामने वाला पहाड़ पेड़ों का घुप्प जंगल था. बढ़िया धूप खिली हुई थी और गांव के लोग अपने खेतों में जाने की तैयारी कर रहे थे. घाटी से एक नाला होकर निकलता है, जो आगे नीरू धारा में जाकर मिलता है. नीरू धारा भदरवाह टाउन से होते हुए डोडा जाकर चेनाब नदी में मिल जाती है. हमने इसी नाले के साथ साथ ऊपर की ओर चलना शुरू कर दिया. रास्ते में कई लोग अपनी भेड़- बकरियों के साथ जाते दिखे, हम भी इन्हीं के साथ साथ चलते गए, बातें करते गए. कई लोग अपने परिवारों और अपने बैलों के साथ खेतों में काम कर रहे थे. सुबह की धूप और हवा में मिट्टी से उठती खुशबु घुलकर ऐसे चढ़ रही थी कि चलने का अलग ही सुर बन चुका था. हम लोग फ़ोटो खींचते, रुकते, चले जा रहे थे.
कुछ एक किलोमीटर आगे जाकर खेत ख़त्म हो गए, एक छोटी सी चढ़ाई आई और उसको पार करते ही हम लोग एक खुले बुग्याल में खड़े थे. इस जगह से हमको रैना भाई जी का गांव और उसी पहाड़ पर ऊपर कई और छोटे- छोटे गांव कुछ ज़्यादा ही दूर दिख रहे थे. बुग्याल के एक कोने पर बकरवालों का एक टेम्पररी घर बना हुआ, जिसमें उनकी भैंसें बंधी थी. उसी साइड दूर पीछे बर्फीले पहाड़ों की चोटियां चमक रहीं थी. अगर आपको इम्तियाज़ अली की हाईवे मूवी का आख़री सीन याद है, तो आप समझ जाइए की ये ठीक वैसी ही जगह थी, जहां हम पहुँच गए थे.
हमारे चारों और इतनी प्राकृतिक सुंदरता भरी हुई थी कि हम लोग एकदम हाई थे. कुछ घंटे वहीं पड़े रहने के बाद हम लोग वापस घर के लिए निकल लिए. पेट में हंगामा मचाते चूहों को शांत करके हमें भदरवाह टाउन देखने जाना था. रैना भाई अपने होस्ट होने के नाते हमें एक से एक ख़ुफ़िया जगहें दिखाने के लिए तैयार थे. आधे घंटे में घर पहुंचकर, खाना पीना खाकर हम लोग ओमनी में सवार होकर निकल लिए। भदरवाह को आप टाउन क्या छोटा शहर भी बोल सकते हैं. शाम तक हमने यहां के पार्क, म्यूज़ियम और मार्किट सब छान मारे। आते वखत खाने पीने का थोड़ा सामान उठाकर हमलोग घर आ गए. आज रात ख़ुद से खाना बनाने का सीन था. पूनम का चाँद था, पास ही खेत से हरे ताज़े धनिए की सबसे बेस्ट खुशबू आ रही थी — इसी दिन बावरे बंजारे स्टाइल अंडा कढ़ी का नामकरण किया गया था.
अब भदरवाह से पहला स्टॉप जय वैली
पहले दिन हमने भदरवाह टाउन तो देख लिया पर पूरी भदरवाह वैली में और क्या क्या क्या है, ये देखना बाकी था. दूसरे दिन कहां कहां जाना है, इसकी एक लिस्ट रैना भाई ने बना ली थी. उनकी लिस्ट में पहला नाम था जय वैली — भदरवाह टाउन से करीब 33 किलोमीटर दूर. वैली तक एकदम मक्ख़न रोड बना हुआ है; भदरवाह-जय लिंक रोड से अपने को ओमनी से पहुँचने में कितना ही टाइम लगना था. रास्ते में फोटो खींचते, रुकते- रूकाते भी हम लोग 2 घंटे से पहले जय वैली पहुँच गए. जगह क्या है, आप खुद देखिए.
जय वैली छह किलोमीटर लम्बी, देवदार और चीड़ के पेड़ो से पटी हुई घाटी है. घाटी के बीच से जय नाला बहता है जो कि यहां के ट्राउट फिश कल्चर के लिए फेमस है. इस जगह कोई दुकान या मकान नहीं है। हालांकि, यहाँ रुकने के लिए आपको कुछ पर्मानेंट टेंट दिख जाएंगे. इसके अलावा, एक यूथ हॉस्टल है जिसमें 150 लोगों के रुकने की जगह है. यह रुकने का सस्ता और बढ़िया ऑप्शन है. वैली से 2 और 4 किलोमीटर की दूरी पर ‘सुबर धार’ और ‘रोशर धार’ करके दो पहाड़ी आती हैं. इन पर ‘‘रॉशेरा माता’ का मंदिर है, जिनमें भदरवाह के लोगों की काफ़ी आस्था है. अपना जय वैली में रुकने का सीन तो था नहीं, पर सुस्ताने के लायक ये जगह ज़रुर थी. भाई जान का सीन तो सेट था, जय वैली आते वक़्त उन्होंने गाड़ी ठेके की तरफ से घूमा ली थी.
कई कई जगह होती है न जहां जाकर आपको लगता है कि हाँ, यहाँ आराम से टेंट लगाकर, हफ्ते भर बैठा जा सकता है! हमको जय वैली वासी ही जगह लगी। चारों तरफ पहाड़ी पेड़ों से घिरा जंगल, ऊपर खुले आसमान के नीचे टेंट और जय नाले के चटक नीले पानी में हिचकोले मारती ट्राउट मछलियां — इसी में पूरा हफ़्ता आराम से निकाला जा सकता है. वैसे सर्दियों में पूरी घाटी बर्फ़ की चादर में ढकी होती है, पर उस समय भी यहां गाड़ी से पहुंचा जा सकता है. विंटर एक्सपीडिशन के लिए तभी तो एक दम आइडियल जगह लगी हमको, साल में कभी भी जा सकते हैं.
जय वैली में बकरवालों से मुलाकात
इस ट्रिप की एक मज़ेदार बात यह हुई कि जय वैली में हमारी मुलाक़ात असल बंजारों से हुई. किसी से इंटरैक्ट करने के लिए आपको बस एक ही कदम आगे बढ़ाने की जरुरत होती है. ये लोग अपनी घोड़े-गाडी और सामान के गट्ठड़ों के साथ जय वैली में फ़ैल कर बैठे हुए थे. घोड़े और भेड़-बकरियां भी फ़ैल कर चर रही थीं. हम लोग फ़ोटो खींचते खींचते इन से बात करने चले गए . हमें नहीं पता था कौन सी भाषा में बात होगी पर कोशिश करने में क्या जाता है. हम गए तो, उनकी परिवार में थोड़ी सी हलचल तो होनी ही थी, बच्चे हमें उनके पास देखकर हैरान थे. इनका चाय पानी का इंतज़ाम तो चालू ही था, एक एक कटोरी बकरी के दूध की चाय अपने को भी मिल गई. बैठकर हम लोग उनसे बात करने लगे.
ये लोग कौन है, कहां से आते हैं, क्यों ट्रेवल करते हैं और कैसे ट्रेवल करते हैं – ये सब जान बूझकर इन लोगों के बारे में हमारी पूरी समझ ही पलट गई! ऊपर फोटो में जो भाई दाहिने हाथ की तरफ बैठा है, वो ग्रेजुएट था, और हमारी बातें समझ उनका जवाब हिंदी में दे रहा थाा. उसने हमें बताया कि वे सभी, कुछ आठ से दस लोग, एक ही परिवार के लोग हैं और सभी एक साथ जय वैली आए हैं, हर साल ऐसे ही आते हैं. बस परिवार के बड़े-बूढ़े जम्मू में, अपने घर पर हैं. रहने के लिए घर होते हुए भी ये लोग हर साल ऐसे ही अपने पूरे परिवार और जानवरों के साथ जम्मू से ऊपर पहाड़ों में निकल पड़ते हैं — अपने जानवरों के लिए! उन्हें बुग्यालों में अच्छी घास चरने को मिल जाता है. “हमारी जिंदगी जानवरों से चलती है, और उनकीं जिंदगी चलाने के लिए हमें पैदल चलना होता है ताकि हम और हमारा परिवार जिंदा रहे. आपके लिए घूमना मज़े करने की बात है, हमारे लिए घूमते रहना ही जिंदगी है.” – अगले कई महीनों तक भाई की ये बात दिमाग से उतरी ही नहीं!
दूसरी बात भाई ने बताई कि कैसे इनके जानवरों को गर्मी में रहना बिलकुल पसंद नहीं. इसलिए जम्मू में जब गर्मी पड़ती है, तो ये लोग ऊपर पहाड़ों की और निकल लेते हैं. और जब ऊपर बर्फ की वजह से घास के मैदान ढक जाते हैं, तो ये लोग अपने जानवरों के साथ वापस जम्मू अपने घर आ जाते हैं. जानवरों के साथ तो इनके बच्चों को भी गर्मियां पसंद नहीं, वे भी पहाड़ों में आकर ही खुश रहते हैं. सही में इन लोगों की लाइफ प्रकृति के जितने करीब थी, प्रकृति के साथ उतनी ही संतुलित और अनुकूल भी. प्रकृति के साथ मिलकर, उसके हिसाब से कैसे चलना होता है, वो हम इनसे सीख सकते हैं. बात बस अपने कॉमफर्ट ज़ोन को थोड़ा चैलेंज करने की है. बक्करवालों के जीने का हू-ब-हू तरीका आप भारत के प्लेन में रहने वाले गाड़े-लोहारों में देख सकते हैं. राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, यहां तक कि दिल्ली की सड़कों के किनारे आपको ये लोग दिख जाएंगे.
जय वैली के से पहले ही आती है चिंता वैली
जगह के नाम में बेशक चिंता हो, बाक़ी जगह है बड़ी चिल्ल. चिंता वैली भी जय वैली की तरह एक खुली हुई घाटी है. यहां भी आप गाडी से आराम से पहुँच सकते हैं. भदरवाह से केवल 20 किलोमीटर दूर, यह जगह जय वैली के रास्ते में ही पड़ती है. आपको इस जगह से भदरवाह घाटी का बर्ड्स आई व्यू दिखेगा! यहां भी जय वैली की तरह रुकने का पूरा बंदोबस्त है. सेपरेट इग्लू टेंट में रुकने के 1200 रूपए तो यूथ हॉस्टल के मात्र 200 रूपए. जय वैली आते टाइम हमने छोटा सा हॉल्ट लिया था यहां, सोचा था वापसी के टाइम देखेंगे पर अभी हमारे पास टाइम कम था. हमको अगली जगह जाना था. वरना तो यह जगह भी हफ्ता बीतने के लिए एकदम आइडियल है.
चिंता वैली से पादरी पास और घर
भदरवाह- जय लिंक रोड से हम लोग फिर भदरवाह-चम्बा रोड पर चढ़ गए. रैना भाई जी ने गाड़ी चौथे गियर में खींचनी शुरू कर दी. पादरी पास भदरवाह से जय वैली जितना ही, 30 किलोमीटर दूर है, पर यह जय वैली की उलटी दिशा में था. चिंता वैली आते आते ही समझ गए थे कि हमारा पादरी पास तक पहुँचाना बहुत मुश्किल है. हालाँकि, हमको पादरी की तरफ का एरिया देखना था. क्यूंकि इस तरफ भदरवाह अपना बॉर्डर चम्बा के साथ शेयर करता है! हमने किताबों में कहीं चम्बा और कश्मीर के राजाओं की लड़ाइयों का जिक्र सुना था. इस तरफ पादरी और अन्य कई ऐसे गांव देखने लायक हैं. इसी चक्कर में जितना हो सका उतनी दूर तक गए. पादरी की तरफ खुले बुग्यालों और मदमस्त करने वाली जगहों की भरमार है. पर हम लोग दूर से ही पादरी पास देखकर, दिन ढलने तक वापस गए. अगले दिन हमें दिल्ली के लिए निकलना था. वैसे ही हम ट्रिप का एक दिन बढ़ा चुके थे.
भदरवाह हमारी उन कुछ प्यारी जगहों में से है एक हो गई जहां हम कभी न कभी तो हफ्ता जरूर बिताएंगे – हर्षिल वाले मौज़ में. इसलिए कहते हैं कि जम्मू कश्मीर में कश्मीर के अलावा भी बहुत जगहें हैं देखने और घूमने के लिए. ऐसी जगहें कि आप “कश्मीर ही जन्नत है” तो कहना जरुर भूल जायेंगे. जाकर देखिए कभी जम्मू भी, सुनी सुनाई जगहों के अलावा भी थोड़ा एक्सप्लोर करना बनता है.