कितने नज़ारे आँखों में और ज़ायके ज़ुबान पर रख हम आगे निकले!
पिछले पार्ट में आपने रोहतांग व्यू फ्रॉम द बालकनी तो देख ही लिया।
क्या नशीले नज़ारों के साथ शुरुआत होती थी हमारी मनाली के वशिष्ठ में. कितने दिन चार-दिवारी में बिताने के बाद, अब जा कर खुला नज़ारा देखने को मिल रहा था. ऐसी सुबहें जिनका कोई मोल नहीं, वो हम जी रहे थे। हम क्या करते, कि सारा दिन बस जादुई बालकनी से पैर बाहर लटकाए मनाली, तो कभी रोहतांग और आसपास की चोटियों को निहारते रहते। आप मानेंगे नहीं भाई लोग, पर हम पूरे दो दिन तक बालकनी के एक कोने से हिले ही नहीं। हाँ, खाना-पीना और हगना-मूतना अलग बात है, आखिर वो भी नेचर्स कॉल ही है. पहले तो आप भी वो कोना देख लो जहां पड़े रहना किसी जन्नत से कम नहीं है।
ऊपर से, मनाली में हमारा अड्डा इतना कटा हुआ है कि दीन – दुनिया सारी नीचे रह जाती है. मनाली क्या, वशिष्ठ भी नीचे दिखता है. आप ऊपर होते हैं और आपसे ऊपर बस बादल, मनाली के पहाड़ों की चोटियां और आसमां होता है. जरूर पहाड़ की चोटियों में कोई न कोई जादुई शक्ति होती होगी, जो आपको ऊपर चढ़ने के लिए आमंत्रित करती है. आप इन्हें नीचे से बैठकर एक बार देखना शुरू करें दें तो आप कई घंटों तक हिल नहीं सकते। बर्फ से टपी चोटियों से आती रौशनी आपकी आँखों में मोती उतार देती हैं, आप इनके वश में होते हैं. लॉस्ट इन द हिमालयाज़ की बालकनी से दाहिनें देखने पर माइटी रोहतांग तो दिखता ही है, साथ में मनाली और सोलांग की कई खूबसूरत चोटियां और उनसे पहले, खुले-खुले बुग्याल दिखते हैं. बालकनी से ठीक सामने देखो तो दो जुड़वां सी चोटियां दिखती हैं. इन्हें फ्रेंडशिप पीक्स कहते हैं.
दो दिन एक ही जगह बैठे-बैठे नज़ारे तो हमने खूब देखे। पर सिर्फ नज़ारों से पेट कहां भरता है, इनसे तो मन भी नहीं भरता। नज़ारे निहारने के अलावा दिन भर में हम बस एक काम किया करते थे, जिसकी तैयारी हम पहले कर चुके थे. बात है खाने की, राशन तो ले ही आये थे. तो हम लोग सुबह उठते ही पहले तो चाय से शुरआत करते. पहाड़ और चाय, इस कॉम्बिनेशन के बारे में कुछ नहीं कहते हैं, आप फीलिंग पर ध्यान दीजिये। चाय के साथ हल्का-सा ब्रेकफास्ट और ब्रेकफास्ट से ही हमारी लंच की तैयारी शुरू हो जाती. फिर दोपहर को खाना खाते-खाते डिनर के लिए डिश सोचने में लग जाते। अंत में रात का खाना, बढ़िया नींद और फिर अगले दिन बस रीपीट। खाना बनाना और खाना बस यही चल रहा था। बाकी तो हम बस बाहर के नज़ारों के साथ बॉलकनी में पड़े रहते थे. बाकी खाना बनाने के लिए एडवांस्ड किचन था हमारे पास.
पहाड़ों में अब भूख फटाफट लगती है, हमारा पूरा दिन खाने-खाना बनाने में कैसे बीतता, हमें पता ही नहीं लगता. आप बेशक इस बात को हलके में लेते हों, पर किचन के अंदर होने वाला काम बेहद जरुरी और कद्र करने लायक है. सीधी बात है, हम खाते हैं तो खड़े हो पाते हैं, चल पाते हैं, और जिन्दा हैं. खाना जरुरी है. पर खुद से खाना बनाने का ख्याल दिमाग में लाना, खाना क्या बने, यह सोचना और फिर खाना बनाने के लिए जरुरी सामान का इंतजाम करके खाना बनाना, सुनने में यह सब बेशक सरल लगे, पर है नहीं. मुश्किल-आसान सब आपके मन की बात है. अगर आप अपनी मेहनत से बने खाने का स्वाद जानते हैं तो फिर आप जानते ही होंगे कि खुद से खाना बनाने का यतन क्यूं करना चाहिए.
हफ्ते भर हम क्या- क्या डिश बनाएंगे, यह हमने दिमाग में पहले ही डिसाइड कर लिया था. इतना आसान नहीं था, पर हमारे पास इसका भी हैक था. अब सब कुछ थोड़ी न बनाना आता हैं हमें। YouTube से देखकर ये कारनामे करते हैं. खाने का एक जबरदस्त चैनल है – ग्रैंडपा किचन. इसमें यह ग्रैंडपा रोज़ एक नई डिश बनाते हैं, वो भी बहुत-भारी मात्रा में और फिर सारा खाना बच्चों को खिला देते हैं. खाना बनाना सिखाने के साथ-साथ, ग्रैंडपा काफी इन्स्पॉयर भी करते हैं. “Loving, Caring, Sharing, This is my family.’, ये इनका नारा है. तो भई, जो कुछ हमें खाना-बनाना आता है, वो तो हमने बनाया ही, साथ ग्रैंडपा किचन के वीडियो देख-देख कर कई नई डिशेज़ भी बनाई.
जो हम वशिष्ठ मनाली में कर रहे थे, इसी को हम असल में चिल्ल करना कहते है. अगर जिंदगी का नाम घूमते-रहना है, तो इसे जीने का मतलब और स्वाद तो खाने में ही है. खाना जशन है जिंदगी का. पर हम कितना चिल्ल कर सकते हैं, कितना जशन मना सकते हैं, यह तो हमें खुद नहीं पता था. दो दिन खाने का नशा करने के बाद हमनें क्या किया, यह अगले भाग में पढ़िए.