“भाईजी, सामने पहाड़ की वो चोटी देख रहे हैं, वो न जाने कितनी सदियों से यहां है! पहाड़ पार करने वाले कितने लोग आते-जाते रहे हैं, पर ये पहाड़, ये चोटियां, कहीं नहीं गई हैं. ये यहीं रहे हैं,और यहीं रहेंगे. मेरी सलाह लें तो आप अगली बार फिर आना, थोड़ा जल्दी, और कामना करके आना कि उस बार मौसम कि कृपा आप पर रहे और आप हमप्ता की यात्रा पूरी कर पाएं.” — ‘सार’ के ये भारी शब्द कहते हुए चंद्रा भाई ने हमें बालू घेरा से वापस रुख़सत किया.
वापस मुड़ने का बिल्कुल मन नहीं था, पर कई बार ऐसा करना ही सही रहता है. ये सब हम सिर्फ सोच कर नहीं बोल रहे. यही बात बालू का घेरा पर उन दिनों हर एक बंदा मान गया था. आप सोच रहे होंगे, ये क्या हुआ? ट्रिप कहां हुई, हमप्ता पीक कहां पार किया. एकबार पहले मनाली से हमप्ता आने की स्टोरी पर नज़र डाल लें, फिर आगे बढ़ते हैं.
तो जी बालू का घेरा हम काफ़ी जल्दी पहुँच गए थे. वक्त न गवाते हुए हमने टेंट लगाने की जगह देखना शुरू कर दिया. देखा तो हमप्ता की तरफ़ मुँह करे, क़तार से कई सारे फैंसी टेंट लाइन से लगे हुए थे. India Hikes और ट्रेक पार कराने वाली बाकी कंपनियों के इन टेंट के बीच हमें दूर से एक तम्बू वाला टेंट दिखा। अपन समझ गए, यही वो दूकान है जिसके बारे में चीका में पता लगा था. देर किए बिना हम सब चन्द्रा भाई की दुकान में दाख़िल हो लिए. चंद्रा भाई दिखने में काफ़ी गहरे इंसान मालूम पड़े. साफ़ सीधे, कम बोलने और काम से काम रखने वाले, पर अलग मिजाज़ के. पहुँचने के पहले घंटों तक चंद्रा भाई से हमारी बात न के बराबर हो पाई.
हमलोग दूकान में घुसे, उनसे टेंट लगाने की जगह पूछी, जिसका जवाब चंद्रा भाई ने इशारा करते हुए बता दी और हम बाहर आ गए. अपने बैग्स से टेंट और स्लीपिंग-बैग्स हम निकाल लाए ताकि रात सोने का प्रबंध पहले कर लें. साफ़-सुथरी जगह देख के हमने हमने अपने अपने टेंट लगा लिए. एक नंबर का सुहावना मौसम हो रखा था, धूप खिली थी और नीले आसमान में चटक सफ़ेद बादलों की आवाज़ाही लगी थी.
टेंट लगाते लगाते, नंदन, जो हमारे साथ ट्रेक कर रहा था, हमसे ताश के पत्ते खेलने की पूछता है. टाइम तो भरपूर था अपन लोगों के पास और बन्दे भी चार. सीन बन गया — टेंट के दोनों पल्ले खोल हम लोग एक टेंट में सेट हो गए. एक तरफ का नज़ारा जिधर से हम आए थे उधर का, और दूसरी तरफ थी हमप्ता चोटी जिस पार हमें जाना था. दोनों तरफ से मस्त ठंडी हवा लग रही थी. पत्तों के साथ बातों का सिलसिला शुरू हो गया.
पत्ते खेलते खेलते हमें कुछ एक घंटे हुए होंगे कि मंडराते बादल कहीं से आकर वैली को घेरने लगे. सूरज से बादलों के पीछे जाते ही हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गई. मौसम सुहावना सा और क़ातिल हो गया. मन ही मन इस मौसम को देख हम खुश तो हुए — वाह! क्या नज़ारा देखने को मिला है. बातों बातों में चाय और पकौडों की तमन्ना भी जागी, पर टेंट से बाहर कौन निकलता, बैठे रहे और एक पे एक बाज़ी जारी रही. कुछ टाइम में बारिश धीमी से मद्धम हो गई, और ‘मौसम’ अब हमारा नहीं, बारिश का बन गया था. हवा के साथ बाहर से आती बूंदें जो पहले मज़ा दे रही थी, अब भिगोने लगी. अपन लोगों ने टेंट के दोनों पल्ले निचे गिरा लिए और अंदर दुबक कर बैठ गए. चार बन्दे एक टेंट में, सर्दी कहां लगनी थी. कई बाजियां फेंटने के बाद हमने बाहर झांका तो घुप्प अंधेरा था, बारिश पहले से तेज़ हो रही थी. घड़ी में तो 6 ही बजे थे, पर बाहर आधी रात हो रखी थी. हमने सोचा थोड़ी देर और वेट कर लें, बारिश रुक जाए तो निकलें, यही सोच कर हमलोग फिर ताशों में लग गए.
अगले दो घण्टे पत्ते खेलते रहने के बाद भी जब बारिश नहीं रुकी तो हमें थोड़ी शंका हुई, मौसम शायद बिगड़ चुका था. टेंट से चारों ओर पानी निकलने के लिए नालियां खुदी हुई थी, पर बारिश इतनी तेज़ थी कि सब नम होकर भीग गया था. हमारे स्लीपिंग बैग्स, जो हम टेंट में ले के बैठे थे, पूरी तरह गीले हो चुके थे. हालाँकि, अभी तक हमारे मन में ये ख्याल नहीं आया था कि अगले दिन की ट्रैकिंग का सीन भी गड़बड़ हो सकता है . मौसम साफ़ नहीं हुआ तो क्या होगा? सबको भूख भी लग चुकी थी! हमने एक के बाद एक टेंट से बाहर छलांग लगाना शुरू किया और चंद्रा भाई की दुकान में जाकर घुस गए.
चंद्रा भाई की दुकान एक किले के माफ़िक थी. तंब्बु के अंदर एक और टेंट लगा था. दूकान में कई सारे कैरैक्टर मौजूद थे, कुछ इंडिया हाइक के ट्रेक गाइड और कुछ कुक वहां बैठकर मौसम के ठीक होने की बातें कर रहे थे. हमने उधर ध्यान न देते हुए चंद्रा भाई की तरफ देखा और पूछा – “भाई जी खाना मिलेगा?”
रात के नौ बजे के आसपास का टाइम होगा, हमें लगा ही नहीं था कि हम लेट हो गए. चंद्रा भाई ने थोड़ा रुककर बड़ी सहजता के साथ बोला, “भाई खाना तो नहीं है, आप लोगों ने खाने के लिए बोला ही नहीं, मुझे लगा आप लोगों ने खाया होगा. खाना तो बना था, सबने खा लिया.”
हम चारों ने एक दूसरे की तरफ देखा, हमें अपनी गलती समझ आ गई थी. हमें भाई जी को आते ही शाम के खाने के लिए कह देना था. हम चंद्रा भाई की तरफ मुड़े और गलती स्वीकार करते हुए, धीमी आवाज़ में पूछा — “भाई जी, बिस्किट-विस्कीट या चिप्स, कुछ भी चलेगा. नहीं तो कोई नहीं, सुबह उठकर डबल खा लेंगे।”
चंद्राभाई ने कोई जवाब नहीं दिया, चुप रहे और उठकर चावल का पतीला गैस पर चढ़ा दिया. हमें लगा चंद्रा भाई को हम पर दया आ गई होगी. पर हमारी जगह कोई और भी होता तो भी चंद्राभाई खाना खिलाते, ट्रिप के आखिर तक इतना तो हम भाईजी को समझ गए थे. बाहर बारिश पहले से और तेज़ हो गई थी. बारिश के साथ तूफ़ान और आसमान में कड़कती बिजलियां हमें टेंट के अंदर ही पता लग रही थी. रात के दस बज गए थे और किसी को नहीं पता था कि ये बारिश अब कब बंद होनी थी. थोड़ी देर में चंद्रा भाई ने खाने के लिए दाल-चावल परोस दिए. खाना खाकर थोड़ी एनर्जी आई! हमने चंद्रा भाई से बात चीत शुरू कर दी. सबसे पहले तो हमने मौसम के सुधरने का चांस पूछा। भाई जी ने कहा कि अगर सुबह तक खुल जाए तो ठीक, बाकी मौसम के बारे में कन्फर्म तो कोई नहीं कह नहीं सकता।
कॉमन इंट्रोडक्शन के यही सब सवाल-जवाब करते सब बैठे रहे, बारिश हो ही रही थी. बाहर हमारे टेंट हैं भी या तूफ़ान में उड़ चुके, हमें कोई आईडिया नहीं था. चंद्रा भाई ने हमको दुकान में ही सो जाने के लिए कहा — इससे बेहतर और क्या हो सकता था. हम तुरंत मान गए. हमारे मांगने पर चंद्रा भाई ने हमें पहले ही एक्स्ट्रा स्लीपिंग बैग भी दे दिया था. हम चारों अपने अपने सोने के ठिकानों पर सेट थे और सोने के लिए रेडी थे. बारिश की टपटप में बातें करते कब नींद आई पता ही नहीं चला.
सुबह बारिश रुकी की नहीं, हम हमप्ता ट्रेक पर कहां तक पहुंच पाए और क्यूं और ये चंद्रा भाई क्या बंदे हैं ? ये सब आख़री के आख़री भाग में.