वैसे तो हम किसी से भी यह कभी नहीं कहेंगे कि किसी शहर में सिर्फ़ एक दिन गुजारा जाए और ख़ास तौर पर ऐसे शहर के लिए जहां की हर गली, हर नुक्कड़ पर इतिहास मुँह बाए खड़ा मिले वहाँ तो कतई नहीं! पर, जब टाइम की मारा मारी कोरोना महामारी जैसे समय में भी ख़त्म नहीं हो पाई, तो The Border 100 को कवर करने निकले हम लौंडों को पास तो एक मिनट भी एक्स्ट्रा नहीं था। मैराथन थी सन्डे, 15 दिसंबर (2019) को और हमें मैराथन से एक दिन पहले जैसलमेर पहुँचना था ताकि तैयारियाँ कवर करने के अलावा थोड़ा जैसलमेर भी शूट किया जा सके। जैसलमेर पहुंचने के लिए जोधपुर से ही जाना पड़ता है!
अब जब जोधपुर जैसा शहर अगर आपके रास्ते में हो, तो आप कोई भी जुगाड़ लगा लगा ही लोगे! प्लान बनाया गया कि शुक्रवार शाम की जगह गुरुवार शाम की मंडोर एक्सप्रेस पकड़ते हैं। शुक्रवार सुबह जोधपुर होंगे और रात को जोधपुर-जैसलमेर लोकल ट्रेन पकड़ लेंगे। शनिवार सुबह आसानी से जैसलमेर पहुंच जाएंगे। एक पूरा दिन मिलेगा जोधपुर घूमने के लिए! सबसे बड़ी तसल्ली की बात यह थी कि दिल्ली से राजस्थान की ओर जाने वाली ट्रेनें अक्सर वक़्त पर ही चलती हैं, तो बिना किसी टेंशन के ट्रेन ले सकते हैं — बस कंफर्म टिकट का थोड़ा लोचा हो सकता है! वैसे तत्काल क़ोटे में टिकट आसानी से मिल जाती है।
अब कोई टेंशन नहीं थी लेट वेट होने की — गुरुवार रात की 9:20 की मंडोर एक्सप्रेस पकड़ी ली, सुबह पौने 8 बजे ही पहुंच गए जोधपुर। जोधपुर रेल्वे स्टेशन इंडिया के सबसे साफ सुथरे स्टेशन्स में से एक है! स्टेशन की दीवारों और छत पर पेंटिंग्स हैं जिनमें मारवाड़ रीजन के कई बेहतरीन फोक टेल्स हैं! इनमें, “पाबूजी की पड़” वाली पेंटिंग रुक कर देखने लायक है। स्टेशन से बाहर आते ही, सबसे पहले अपन पहुंचे चाय की दुकान पर – पास में ही गर्मागर्म कचौरियां बन रही थी। पर अभी पेल के खाने का मन नहीं था और इसकी दो वजह थी — एक तो अभी इतनी भूख नहीं थी और दूसरी यह कि असली वाली जोधपुरी कचोड़ी, मिर्ची बड़े और समोसे कहाँ मिलेंगे उसका पता हमें था!
चाय बिस्कुट चसा के अगले तीन चार घंटे आराम से जोधपुर गलियां हांडने का सीन था! अब सेट ये हुआ कि सबसे पहले जाएंगे घंटाघर, और चूंकि हम सुबह जल्दी आ गए थे, इसलिए यहां भीड़ भी नहीं होगी और हम आसानी से फोटोज़ वगेरह ले सकते हैं! मन तो फोटोज़ के अलावा माखनिया लस्सी पर भी अटका था पर सुबह सुबह इतनी हैवी चीज़ खाने के बाद हम बाक़ी सब चीज़ें नहीं खा पाते! इसलिए मन को मनाया और जुट गए जोधपुर समेटने में। घंटाघर के चारों ओर जोधपुर का सबसे पुराना बाज़ार है जिसे सरदार मार्केट के नाम से जाना जाता है!
घंटा घर घंटा घर पर बैठे लाखों टट्टीबाज़ कबूतरों को हर एंगल से शूट करके अपन पहुंचे तूर जी के झालरे पर! एक पुराने शहर के बीचों बीच 18वीं सदी में बनाई गई यह बावड़ी अपने समय में शहर के लोगों के लिए पीने के पानी का मेन सोर्स था. अब स्मार्ट आरओ के टाइम में उस समय की स्थापत्य कला को देखने का जो चीप थ्रिल है न, उसका हम आपको कुछ नहीं बता सकते।
वैसे तो सर्दियों की सुबह थी पर दिल्ली और हिमाचल की ठंड भोग चुके अपन लौंडों को जोधपुर की ठंड में एकदम कोज़ी कोज़ी लग रहा था! झालड़े से निकलकर यूँ घूमी और सामने था मेहरानगढ़ — जोधपुर का फ़ेमस फ़ोर्ट! अब आपको एक सीक्रेट बताते हैं – पुराने शहर के अंदर से ही एक रास्ता जाता है क़िले की तरफ़ – थोड़ी चढ़ाई है, लेकिन बिना किसी रोक-टोक और तांक-झांक के अगर आप किले पर बैठ कर राजा गजसिंह टाइप फ़ील लेना चाहते हैं तो ये रास्ता बस आप ही के लिए बना है! कतई खूबसूरत नीले-नीले घर और क़िले की तलहटी में बसे पुराने शहर की संकरी गलियों से होते हुए लिए अपने अड्डे पर – शहर के दूसरे छोर पर उम्मेद भवन एकदम मेहताब बाग़ टाइप फील देता है! उम्मेद भवन और मेहरानगढ़ के बीच धुंध से घिरा जोधपुर शहर आपको गूज़ बम्प्स दे सकता है अगर आप किसी सहारा को एक क्रोनिक्लर की नज़रों से देखेंगे तो!
एक नंबर बढ़िया मौसम था — अपना प्रोग्राम शुरू कर दिया, बीड़ी बूड़ी जलाई गई और एक घंटा कब बीत गया पता ही नहीं चला। नीचे उतरते उतरते डिसाइड हुआ कि किसी ऐसी जगह चला जाए जहाँ फ्रेश व्रेश हो सकें और अपने पास अपने नवीन भाई का अड्डा है – Jostel, जोधपुर! अब हम सोच के आये थे फ्रेश होंगे और निकल लेंगे पर नवीन भाई जैसे दोस्तों की कृपा से क्या सब करते करते 12 बज (घड़ी वाला भी और लेट होने वाला भी ) जाते हैं इसका पास जवाब नहीं है! किसी तरह तशरीफ़ें हिलाई गईं और हम वापस आ गए घंटाघर के बाहर नई सड़क की ओर, सीधा शाही समोसा वाले के यहाँ! गर्मागर्म मिर्ची बड़े की दावत उड़ाने का प्लान था! इसकी और जोधपुर में हमारे इस कहानी अगले हफ्ते के “Thursday थ्रोबैक “ में इसी ब्लॉग की अगली किश्त में आएगी!