हर बार कहीं घूमने जाने से पहले मैं यही सोचती हूँ कि इस बार तो सोलो ट्रेक करूँगी। पर फिर दुनिया की वही घिसी-पिटी कहावत आ जाती है कि अकेली लड़की किसी खुली तिजोरी की तरह होती है। इसलिए हर बार किसी न किसी को घूमने के लिए साथ ले लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि अकेले घूमने में मुझे कोई डर लगता है, पर घरवालों की नज़रों में बच्चे कहां बड़े होते हैं। उनके हिसाब से तो बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं और उनको हमारी फ़िकर ता उम्र लगी रहती है। यही सोच-समझ कर इस बार घूमने का फिर से प्लान बना, और प्लान में दो एक दोस्तों को भी साथ मिलाया गया। घूमने के लिए रवाना होने के लिए दिल्ली के कश्मीरी गेट से बस पकड़नी थी सभी को। बस तो पकड़ ली, पर हर बार की तरह ‘ जब वी मेट’ की करीना की तरह लेट होकर, किसी तरह भागते-भागते।
घूमने का मन मेरा था तो यह वाला प्लान भी मेरा था। गूगल देवता की मदद से भृगु लेक ट्रेक करने का प्लान किया था। सभी 9 से 6 काम करने वालों की तरह वीकेंड का प्लान बनाया गया। प्लान ये था कि अगर शुक्रवार रात को दिल्ली से निकलेंगे तो अगले दिन दोपहर तक मनाली में होंगे। वहां से कैम्पिंग इक्विप्मेंट रेंट पर ले लेंगे और निकल लेंगे फिर ट्रेक के लिए। मनाली में रुकने का सीन नहीं था; सोचा था कि कैम्पिंग इक्विप्मेंट लेकर शनिवार रात गुलाबा में बितायेंगे।
फिर अगले दिन, यानी की संडे को, गुलाबा से ट्रेक शुरू करेंगे और भृगु जाकर शाम तक वापिस मनाली। गूगल पर मिली जानकारी के अनुसार ये पॉसिबल था, तो हमने सोचा ऐसा ही होगा। हम्पता ट्रेक भी गूगल पर ईज़ी/मॉडरेट की श्रेणी में आता है, और तो और, यह भी कि यह ट्रेक बच्चे-बूढ़ों के लिए भी है। अक्सर लोग गूगल पर मिली जानकारी को एकदम सच मान लेते हैं, हमसे भी यही हुआ। सभी की तरह हमारे दिमाग़ से भी निकल गया कि आख़िरकार गूगल की जानकारी भी तो आप या हम जैसे किसी ने डाली है, जो कि अलग, बहुत अलग और ग़लत भी हो सकती है।
गूगल से बनाए गए ऐसे प्लान को कहते हैं — “हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे”
भृगु लेक का जो प्लान हमको गूगल पर पढ़ने में आसान लग रहा था वो प्रैक्टिक्ली तो बिलकुल अलग निकला। हमारी लग गई। 14000 फ़ीट की हाइट एक दिन में वे लोग ज़रूर कर सकते हैं जो पहाड़ों में चलने का अच्छा माद्दा रखते हैं; जैसे कि पहाड़ी लोकल लोग या फिर पहाड़ों में निरंतर भटकने वाले ट्रेकर्स। गुलाबा से भृगु तक ट्रेक करने में न न करते हुए भी 5 से 6 घंटे लग ही जायेंगे। वापिस आने में भी एक आध घंटा कम कर लो। कुल मिलाकर आपको 9-10 घंटे तो लगातार चलना रहता है। हम सब ख़ुशी-ख़ुशी लेक अड्वेंचर के लिए तैयार थे। पर हमको क्या पता था कि असल में सब ऐसे होगा।
जिस बस को दिल्ली से 7 बजे चलना था, वो रात को 10 बजे जाकर निकली यहां से। बस को हमें अगले दिन 11 बजे तक मनाली पहुँचाना था। सुबह 8 बजे जब रास्ते में ब्रेकफ़ास्ट के लिए बस रुकी तो, लोगों से मालूम पड़ा कि यहां से मनाली पहुँचने में शाम के 5 बज जायेंगे। हमको भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा था। तो हमने पहले जाकर बस वाले की माँ-बहन एक की, सुनाया उसे ख़ूब, और फिर बैग उठाकर HRTC की बस से लिफ़्ट ली। शाम 4 बजे तक हम मनाली पहुंचे। गुलाबा में पहली रात बिताने का प्लान अब धुंधला-सा दिख रहा था। हमको कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। गूगल और हमारा प्लान धरा का धरा रह गया।
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दिल्ली में बहुत गरमी होने की वजह से, वहां का सारा क्राउड-कचरा भी मनाली पहुँच चुका था। उनको देख के लगा कि मनाली में भी एक सरोजनी मार्केट खोलने का प्लान बनना चाहिए था। ज़्यादा क्राउड के चलते हर चीज़ का दाम दोगुना हो गया था, खाने वाला, कैब वाला, होटल वाला, सब के सब मुँह फाड़ कर पैसा माँग रहे थे। गुलाबा दूर दिखते हुए, मजबूरी में, हमको शनिवार रात मनाली में ही रुकना पड़ा।
अब रात में बैठकर सोचा कि कल सुबह 4 बजे ही कैब करके गुलाबा के लिए निकल लेंगे। सुबह 7 बजे तक भी गुलाबा पहुँच गए तो वहां से भृगु तक ट्रेक करके शाम तक गुलाबा वापस आ जायेंगे। गुलाबा से फिर कोई कोई लिफ़्ट लेकर मनाली बस स्टैंड और वहां से बस लेकर सीधा घर, दिल्ली। और कुछ समझ नहीं आ रहा था, मनाली तक आ गए थे तो ट्रेक कम से कम अटेम्प्ट तो करना ही था। ऐसे ही वापस थोड़ी न जा सकते थे। भीड़ की वजह से पूरा मनाली पैक था, होटल मिलना मुश्किल और महँगा दोनों ही पड़ रहे थे। शाम के 6 बज गए, और कोई होटल नहीं मिल रहा था। हममें से एक अनमोल रतन को लगा कि अब भृगु पहुँचना मुमकिन नहीं। पहला तो यह कि ऑलरेडी इतना लेट हो चुके थे, आगे कितना टाइम और लगेगा उसका भी कोई अंदाज़ा नहीं था।
ऑफ़िस से मंडे की छुट्टी लेनी पड़ेगी, यह सोचकर, हमारा लौंडा दिल्ली के लिए पहली बस पकड़कर ही वापिस निकल लिया। बहुत रोका उसे, कि अगर लेट होता दिखेगा तो बीच रास्ते से वापस आ जायेंगे, पर मंडे की छुट्टी नहीं लेंगे। पर उसकी वीकेंड ट्रिप, दिल्ली बस स्टैंड से मनाली बस स्टैंड तक ही थी। उसकी बात समझते हुए, उसको गालियों के साथ रुकसत किया गया।
भृगु जाने वाले 3 में से अब केवल 2 लोग बचे। रोहतांग में तगड़े ट्रैफ़िक की बातें हो रही थी। हमने किसी तरह होटल और सुबह जल्दी निकलने के लिए कैब बुक की । अगले दिन सुबह 3 बजे उठे, नहाए-धोए, बैग पैक किया और निकल लिए भृगु लेक के लिए। सुबह 6 बजे तक हम गुलाबा गांव में थे। बहुत भूख लगी थी तो आगे निकलने से पहले चाय और मैगी खाई। अब यहां से अपनी ट्रेकिंग की शुरुआत हो गई। यहां से हमने धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू किया। हम लोग एक दूसरे को टाइम याद दिलाते हुए चल रहे थे, ताकि लगातार चलते रहें और समय रहते अगले कैम्प पर पहुँच सकें। हम ठीक ठाक ही चल रहे थे, धीमा पर निरंतर। पर इसमें मेरा दूसरा मित्र कुछ ज़्यादा ही चटक बन रहा था, बार-बार टाइम देखकर ताना मारता कि हम प्लान के अकोर्डिंग स्लो हैं। पर अब डेली-डेली तो पहाड़ों में चलने की आदत थोड़ी ही है कि एकदम से मिल्खा सिंह बन जाऊँ और सीधा पहाड़ की चोटी पर। वैसे भी यही पहाड़ों में रोज़-रोज़ न होने वाली बात इसी बात की गवाही दे रही थी कि रोज़ थोड़ी न पहाड़ आते हो, जल्दी किस बात की है। यही सोच कर धीरे-धीरे जगह और नज़ारों का लुत्फ़ लेते चल रहे थे।
इस बीच आता है, सबसे अद्भुत नज़ारा। ऐसा नज़ारा जो आप में अजीब सा थ्रिल पैदा कर दे। पेट में तितलियाँ मचलने लगी, जैसे कि एकदम से उड़ने की आज़ादी मिल गई। यह जगह मेरे लिए वो जगह थी, जिसे देखकर आपको एकदम से पहाड़ों से प्यार हो जाता है। वह व्यू और वह मोमेंट था। मोमेंट को मेमरी बनाने के लिए वहां पर दो-चार फ़ोटो खिंचवाई। साथ चल रहे दोस्त की भलाई सोचते हुए, उसकी भी दो एक फ़ोटो खींच ली। मैट्रिमोनीयल पर लगाने की हिदायत भी दे दी, शादी हो जाए शायद बेचारे की।
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थोड़ी देर यहां रुके और बैठे भी नहीं थे कि साथ चल रहे दोस्त ने फिर से टाइम टाइम का राग अलापना शुरू कर दिया। ऐंठकर बोला कि इस तरह चले तो आज तो कतई नहीं पहुँच पायेंगे। सुनते ही मेरा दिमाग़ भन्ना गया, मैंने पूछा भाई आख़िर जल्दी है किस बात की? उधर क्या कोई इवेंट हो रहा है, हम जल्दी जायेंगे तो जैसे कोई हमें ट्रॉफी देगा। पहाड़ देखने, पहाड़ों में घूमने आए थे, और फ़िलहाल हम वहीं खड़े थे। इतनी दूर से इसी नज़ारे के लिए आए थे, अब यहां पर भी वही जल्दी, जल्दी। एक रेस वाली ज़िंदगी तो ऑलरेडी शहरों में जी ही रहे हैं हम, तो फिर घूमने में भी जल्दी क्यूँ?
ट्रेक मुझे भी पूरा करना था, आधा रास्ता कवर करने के लिए तो नहीं निकले थे घर से। पर मैंने अपने दोस्त को कहा, “यार ये ट्रेक जो हम लोग अभी कर रहे हैं कितने लोग तो सोच कर ही अटेम्प्ट नहीं करते। अगर हम रेल की तरह भागेंगे तो ट्रेक पूरा नहीं कर पायेंगे। तो एंजोय करते हुए चलते हैं, जितना कवर होगा ठीक, वरना वापस। ”
ऐसी धमकी सी देकर, हम लोग फिर चलते बने। भृगु लेक का मेन कैंप साईट रोला खोली में है। ऊपर वाले व्यू-पॉइंट से यहां तक पहुँचने में हमें दो घंटे और लगे। यहां तक तो हम किसी तरह बिना गाइड आ गए थे, पर आगे के रास्ते का हमको कोई अता-पता नहीं था। इससे आगे बढ़ने के लिए गाइड ज़रूरी है, ये हमें वहीं पहुँचकर समझ आया। हमारी मानों तो एक बात की गाँठ ज़रूर बांध लो — पहाड़ों में ट्रेक करो तो हमेशा कोई लोकल गाइड ज़रूर साथ लेकर चलो। रास्ते, मौसम और आपदा का कोई भरोसा नहीं। लोकल गाइड साथ हो तो आपके सरवाईवल के चान्स बढ़ जाते हैं, बस थोड़े से रुपए की बात होती है।
यहां पर एक गाइड भैया एक कपल को लेकर आगे जा रहे थे, मुझे उनमें साक्षात भगवान दिखे। भैया को थोड़ा मस्का लगाया और उनसे विनती की कि हमें भी साथ ले चलें। थोड़ा नाटक, थोड़ी ख़ुशामत, और थोड़ी बड़ाई के बाद गाइड भैया हमें साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। 11 बजे तक हम लोग रोला खोली पहुँच गए। सुबह बस वही एक मैगी और चाय पी थी, चलते- चलते अब गंदी भूख लग आई थी। हमारे पास कुछ स्नैक्स थे, हमने वही खाए और आगे बढ़ने के लिए तैयार हुए। इससे पहले कि आगे चलते, एक परेशानी और खड़ी हो गई। अब, जो दोस्त बार बार जल्दी चलने के लिए कह रहा था, उसकी तबियत ख़राब हो गई। माउंटेन सिकनेस हो गया बेचारे को, हाइट पर किसी को भी हो सकता है। हमारे गाइड भैया ने उसको कुछ दवाइयाँ दी, गाइड की भूमिका अब हमें अच्छे से समझ आई।
12 बज चुके थे, और अब असली ट्रेक शुरू होने वाला था। असली मतलब, द डिफ़िकल्ट पार्ट ऑफ़ द ट्रेक। आगे एक दम सीधी चढ़ाई चढ़नी थी। गाइड भैया ने बोला कि अगर इसी स्पीड से चलते रहे तो 3 बजे तक हम भृगु लेक पहुँच जायेंगे। हमारी हिम्मत बंधी। मैंने सोचा कि बस अब तो पहुँच ही जायेंगे। पर हिम्मत कुछ देर में ही जवाब देने लगी। पता नहीं मेरे लेफ़्ट पैर में अचानक से पेन शुरू हो गया। चलने के लिए एक एक क़दम रखना मुश्किल हो रहा था। अब हम दोनो की हालत एक सी थी। चलना मुश्किल हो रहा था। दोस्त ने मेरी तरफ़ देख कर पूछा कि क्या करना है। मुझे सबसे पहले ऊपर वाले की याद आई। जैसे स्कूल में रिज़ल्ट के टाइम विनती करते थे कि हे भगवान बस इस बार पास करवा दे, अगली बार से और पढ़ाई करूँगी, वैसे ही मन में आवाज़ लगाई कि बस ये ट्रेक पूरा करवा दे किसी तरह, अगली बार अच्छे से तैयारी करके ट्रेक करेंगे या फिर कोई ट्रेक ही नहीं करूँगी।
एक तो चलते- चलते तबियत बिगड़ चुकी थी, ऊपर से हम रोटी-सब्ज़ी खाने वाले लोग। दिन भर मैगी पर कैसे चलते? चलना मुश्किल होता जा रहा था। तभी जैसे ऊपर वाले ने हमारी गुहार सुन ली – साथ चल रहे एक ट्रेकर के रूप में वे प्रकट हुए। हमारी तबियत देखते हुए हमको पराँठे और दवाई ऑफ़र की। पराँठे खाते ही जान में जान आई, और चलने की थोड़ी हिम्मत आई।
ट्रेक को जितना आसान गूगल देवता ने बताया था, ट्रेक उतना आसान था नहीं। स्नो बहुत ज़्यादा थी, धूप में सफ़ेद बरफ़ आखों में लग रही थी और साँस लेने में भी दिक्कत हो रही थी। धीरे-धीरे हम लोग आगे की ओर बढ़ते रहे। 3 बज चुके थे पर आसपास कोई लेक नज़र नहीं आ रही थी। अब हमारी हिम्मत जवाब देने लगी थी। बार- बार एक दूसरे से वही सवाल पूछते कि और कितना दूर, क्या करना है, वापस चलें क्या? पर अंदर वही बात सुनाई पड़ती कि इतनी दूर आकर वापस जाने का मतलब नहीं बनता। यहां से वापस गए तो नीचे जाकर बहुत दुःख होगा। यही सोचकर हम धीरे धीरे चलते गए, और एकदूसरे की वापस जाने की बात को टालते रहे।
जब हम भृगु लेक पहुंचे तो पहले तो हमें यक़ीन ही नहीं आया कि हम पहुंच गए। झील एक बड़े गोल गड्ढे की तरह थी। ऊपर से सारी जमी हुई, एकदम बरफ़ से मेल खाती हुई। लेक पहुंचने की फ़ीलिंग मैं आपको बता ही नहीं सकती, उस फ़ीलिंग को बस वहीं जाकर फ़ील किया जा सकता है। झील तक पहुंच कर इतनी ख़ुशी महसूस हो रही थी कि जैसे कुछ बड़ा हासिल कर लिया हो। हमारी टूटती हिम्मत एकदम से कॉन्फ़िडेन्स में आ गई। मैं ख़ुद को शाबाशी देते हुए सोचने लगी कि देख हिम्मत की जाए तो क्या कुछ नहीं हो सकता। माइंड और बॉडी ने लगभग जवाब दे दिया था, पर अपनी हिम्मत और जिद्द के कारण ही हम यहां तक पहुंच पाए।
हमें इस ट्रेक से जो समझ आया, वो ये था कि हमारी ज़िंदगी भी तो किसी ट्रेक की तरह ही है। मंज़िल तक पहुँचाने के लिए वो हमें तरह-तरह की मुश्किलों से मिलवाते हुए चलती है, पर आपको बस चलते रहने होता है। हर मुश्किल के साथ कुछ न कुछ सीखने को भी होता है। अगर आप मुश्किलों से हार न मान कर डटे रहते हैं तो मंज़िल तक ज़रूर पहुंचते हैं। किसी को प्यार में चाहना ही शिद्दत नहीं होता, शिद्दत हर उस चीज़ में होती है जो आपको ख़ुश करती है! तो, ऐसे काम ज़रूर करने चाहिए जो आपको अंदर से ख़ुश करें। ट्रैव्लिंग उनमें से एक है।
ऐसा रहा भृगु लेक के लिए हमारा ट्रेक – लेट, मुश्किल भरा और हिम्मत हराने वाला। पर आख़िरकर अंदरूनी ख़ुशी से भर देने वाला। आप में से कोई भृगु गया है तो कॉमेंट में अपना क़िस्सा बताइए।
3 thoughts on “भृगु, भसूड़ी और ट्रेकिंग का रोमांच!”
gud one
🙂
बहुत खूब
वापसी कैसे हुए ये भी बताना था थोड़ा रोमांच बढ़ जाता